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पुराने नए की ओर भागे

 चूक से चूक की ओर भागे। तितलियां परिंदों की ओर भागे।। ऊंचे पहाड़ों से बेवफाई करके। नदियां गहरी समंदर की ओर भागे।। दिसंबर जनवरी से रिश्ता तोड़ दिया।  जाड़े गर्मी नए संबंधों की ओर भागे।। रात की हवाएं, छलक छलक कर रोई। शाम की हवाएं सुबहो की ओर भागे।। ये चंदा, ये चकवा, ये मौसम का चक्का। नए को छोड़, पुराने घर की ओर भागे।। ~ असमर्थ

डिजिटल दुनियां से दूर का अनुभव

 डिजिटल दुनियां से दूर का अनुभव  ढूंढते ढूंढते पहुंचा एक नई जगह, जहां नींद के लिए सितारों की जरूरत न थी, न पाने के लिए ख्वाहिशों की। सब कुछ मिल जाने का आसान तरीका था, इंतज़ार को भूलकर डूब जाने का। भींगे भींगे दिनों-सा ऐसे साथी मिल गए, रास्ते गुम गईं,मंजिलों का पता न चला, उड़ान का नया मज़ा इससे बेहतर कहां.? इसे जितनी दफा याद करता हूं, हर बार नया नया सा लगता है। बारिशों,सर्दियों, गर्मियों की यादें, खुद को आवारा बनाने के बाद आते हैं, कबसे देख रहा हूं इस चांद को, क्यूं ये कभी बूढ़ा नहीं दिखता? मैं बूढ़े होते हुए भले दूर चला जाऊं, इसे तो लम्बे समय तक यहां रहना चाहिए, अगली पीढ़ी को भी इसके जिक्र का मौका मिले। कुछ इस तरह से ही मन बहका रहता, काश एक बारी दिल लग गया होता इनसे, इन आंखों में छलकता रहता प्यार। अब तो सारी ख्वाब ही गुम गई, मोबाईल ने आधे नींद में ही उठा दिया! ~मनीष कुमार ' असमर्थ' अमरकंटक अनुपपुर मध्यप्रदेश