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बूंद

 मन आमोद करती आंखों से बहती बूंदे। धुल देती हैं  यादों में रखी  बिछोह की आखिरी मुलाकातें। शैंपू से सुगंधित केश, गाल को छूते हुए गरजे थे, अब भी फटे शुष्क भूमि को, नम कर देती है, जब आकाश से गिरती हैं बुंदे। भुजंग द्रव बूंदों सा, तुम्हारी मुस्कान के साथ, वो आखिरी अलविदा, देह नील करके, प्राण शांत कर दीं थीं। फूलों में चिपके, शीत जलबिंदु, सुनहरे भूरे लटों पे, माणिक की भांति, चित्त में चित्रित, तुम्हारी आखिरी चित्र। सूर्य का अग्नि, माथे से गिराती जलबिंदु, क्षणिक सुख देती हैं, जब टकराती हैं शीतल हवा। पहले घाव फिर मरहम, तुम्हारे साथ आख़िरी भेंट सा था। ~ असमर्थ

ठहराव

 जैसे कमलिनी के पराग में मग्न भौंरा, सूर्यास्त को भांप नहीं पाया, और बंद होती पंखुड़ियों ने, सूर्योदय तक के लिए ठहरा लिया उसे।  वैसे ही एक कुशुम, जिसके लाल चुनरी में,  किनारों पर जड़ी गोटेदार घुंघरू, छन् छन् छ न न न छन् , करते हुए ठप सा कैद कर लिया मुझे। ठहर जाना अप्राकृतिक तो नहीं! कोई दरिया ठहर जाता है,  मीन के परिवार के लिए। ठहरे हुए डाली की तलाश करती है, कोई पंछी अपने घरौंदे के लिए।  स्टेशन आने पर मेरा ठहरना भी, किसी रेलगाड़ी सा ही था ! ठहर गया.! जैसे बेरोजगार परदेशी पति, अपने प्रियतमा के प्रेम में,  एक दिन के लिए घर में ठहर जाता है! ~असमर्थ

मेरी दीवाली

   मेरी दीवाली अधिया लेकर, उन्हारी के लिए..! ओल तलाशते, हांफते खुरखुरे गोड़। नागर की मुठिया पकड़े, छालेदार हाथ, कंटीले ढेलों से टकराती, बिछलती , फटी एड़ियां। निचोड़ते सर्द में कातिक की कटाई से, माथे और कखरी से  चू रहे, कचपच पसीना। ये तेल की तरह, रेंग रहे हैं, किसी दीपक के बाती में। ताकि बाती का जलना भी। औरों के लिए, उजाला बन जाए। बनिहारी करके, करखी शाम में, लौटते मेरे हथेलियों द्वारा। पिसान से बने दिये का, जलना।  क्षणिक उजाला लेकर,  मेरे खपरैल को, राम का आयोध्या बना दिया! मनीष कुमार "असमर्थ" उमनिया अमरकंटक अनुपपुर मध्यप्रदेश 6263681015

गरीब की पंक्ति

हवा बंद हुआ होगा,वहां भी कभी तूफ़ान आए होंगे। छत टपका होगा, वहां भी कभी बरसात आए होंगे। तुम जन्नतों में रहने का दावा करते रहते तो हो। मुझे मालूम हैं तुम भी उन्हीं झुग्गियों से आए होगे। बात बात पर उन गलियों को गालियां देने वालों। पक्का तुम कंचों से सनी वहीं की मिट्टी खाए हुए होगे। जहां तुम्हारी मां चूल्हा फूंकते फूंकते बूढ़ी हुईं हों। तुम कहते हो ऐसे लोग भला कहां से आए होंगे..? तुम भूल बैठे इन बसाहटों में जब हम पिंचर बनाते थे। अब कहते हो ये सारे लोग पराए थे पराए हो रहे होगें।