गरीब की पंक्ति


हवा बंद हुआ होगा,वहां भी कभी तूफ़ान आए होंगे।

छत टपका होगा, वहां भी कभी बरसात आए होंगे।


तुम जन्नतों में रहने का दावा करते रहते तो हो।

मुझे मालूम हैं तुम भी उन्हीं झुग्गियों से आए होगे।


बात बात पर उन गलियों को गालियां देने वालों।

पक्का तुम कंचों से सनी वहीं की मिट्टी खाए हुए होगे।


जहां तुम्हारी मां चूल्हा फूंकते फूंकते बूढ़ी हुईं हों।

तुम कहते हो ऐसे लोग भला कहां से आए होंगे..?


तुम भूल बैठे इन बसाहटों में जब हम पिंचर बनाते थे।

अब कहते हो ये सारे लोग पराए थे पराए हो रहे होगें।

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