कहानी एक ठूंठ की ~ मनीष कुमार "असमर्थ"

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 कहानी एक ठूंठ की

शीत ऋतु ने मेरे तन पे ऐसे प्रहार किया है कि मेरी पत्तियां सूख गईं और मेरे कोमल शाखाये टूट चुकी हैं। अब लोगों ने अपने शब्दकोश में मेरा नाम पेड़ से बदलकर ठूंठ रख दिया है। मैं एक ठूंठ हूं ,( ठूंठ ने कहा) और आगे की कहानी मेरी ही है... शर्दियों का ऋतु बीत चुका है, अब वसंत का पूर्ण काल आ चुका है।जब बसन्त अपने मोहल्ले में होली मना रहा है तब रंगहीन बनकर मैं उसी के सामने अकेला खड़ा हो गया हूं, जब बसन्त प्रसन्नता के प्रवाह में नृत्य कर रहा है, तब मैं हजारों दबावों का बोझ लेकर, कांतिहीन छवि और सूखे होंठ लेकर उसी के सामने खड़ा हो गया हूं, भला कोई ऐसे करता है? कि किसी के पास लंबे वक्त के बाद सुखद क्षण आए और हम ये सोच कर निराश रहें कि इसका तो अच्छा समय आ गया है! मेरा कब आएगा? लेकिन मै निराश हूं! हताश हूं! मेरे प्रसन्नता के सिर को काटकर इस दुर्दिन सर्द ने अलग कर दिया है। केवल मेरे पास मेरा धड़ ही शेष बचा हुआ है,जिसे ही मैं अपनी इस संसार में अपनी वाजुदगी मानता हूं। मेरा एक सवाल खुद से है कि मैं इस अंजान भीड़ में अकेला ही मायूस सा क्यों खड़ा हूं?? बसन्त के इस चहलपहल में सभी एक दूसरे को जानते है पर मेरा परिचय किसी से नहीं है। क्योंकि मैं घायल हूं और संकोची भी हूं बोल नहीं पा रहा हुं। सभी एक दुसरे से बातें कर रहे हैं। मै सहस्त्र सवाल लिए खोया हुआ-सा, अकेला खड़ा सोच रहा हुं कि आख़िर मेरे अंदर ऐसी कोई गुणवत्ता भी है ?जिससे वे मुझसे बाते करें! मुझे भी इस संसार का सदस्य माने! मैं खुद के अंदर झांक रहा हुं तो पाता हूं कि मेरे अंदर कोई गुण ही नहीं है। न ही मेरे पास हरे पत्ते हैं जो इन्हें छांव दे पाऊं और न ही शोभा के कोई पुष्प! हां इसीलिए वे मुझसे दूरी बना रहे हैं। चलो कोई बात नहीं अच्छा है, उसने मुझे बनाया है तो मेरे हिस्से में भी कुछ सुखद क्षण दिया होगा!



मेरी शिकायत है कि,किसी ने सुनहरे,लाल,पीले,हरे सुंदर वस्त्र वालों के बीच फटे, निर्वस्त्र, श्रृंगार रहित इस भिखारी को लाकर इसीलिए खड़ा किया है ताकि मेरा परिहास हो! मेरी ये जगह नहीं है जहां मुझे लाकर खड़ा कर दिया गया है। मेरी जगह तो उस पतझड़ वन में है, जहां मेरे जैसे मित्र मुझे मिलेंगे और मैं अपनी सारी बातें उनसे साझा कर सकता हूं। मैं उनसे कह पाऊंगा कि हम सबमें समानता है, और हम सब बारिश के बाद या उससे पहले हरे हो जाएंगे। पतझड़ में रहुंगा तो संघर्ष करने के लिए यही उम्मीद मिलती रहेगी।


मैं इस स्थान पर ऐसे बैठा हूं जैसे कोई गांव का गरीब विधार्थी गांव से किसी श्रेष्ठ संस्थान में अध्ययन हेतु जाता है और वहां वह खुद को बाकी शहरी,वाचाल,रौबीले लोगों से, खोया हुआ सा पाता है।उसे लगता है कि उसका परिवेश इनसे भिन्न है तो वो इन सबमें मिल कैसे पाएगा?? खुद को संकुचित करके कक्षा में मायूस सा बैठा रहता है। इस अपरिचित हुजूम से वो घबरा कर अपनी हताशा किसी से साझा नहीं कर पाता।


किसी ने मेरा स्थान भी अनुपयुक्त जगह पर कर दिया है ; आपस में बात करते हुए ये हरे भरे खिले हुए हसतें हैं तो मैं डर जाता हूं कि ये मुझपे तो नहीं हंस रहे? तपाक सा मैं अपने पहनावा और स्थिति को परखने लगता हूं। बाद में मुझे आभास होता है कि किसी को किसी पर हंसने का समय नहीं है। सभी के अपने अच्छे दिन चल रहे हैं और वे प्रसन्नता से गुज़ार रहे हैं।

मौसम की मार हर कोई नहीं झेल पाता उनमें से मै भी एक हूं किसी सर्द ने ऐसे प्रहार किया है कि मैं केवल एक ठूंठ बनकर रह गया हूं, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा हूं, प्रबल संघर्ष जहां मुझे भोजन नहीं मिल पा रहा है क्योंकि मेरे पत्ते सूख गए हैं,सुरज के प्रकाश की उपस्थिति में भी मुझे भोजन बनाने में समस्या हो रही है।अब तो सूरज का काम भी मुझे केवल प्रचंड ताप से तपाना ही है,मुझसे दूर दूर तक कोई जलस्रोत भी नहीं है!! मुझे जीने के लिए बहुत सारी आवश्यक वस्तुओं की जरूरत है  लेकिन मेरे लिए सुलभ नहीं है इसलिए खुद को जिंदा रखन के लिए मेंरा संघर्ष अनवरत जारी रहेगा।

किसी ने मुझसे परिहास किया और कहा कि, "तुम्हारे पत्ते इसलिए सूख गए है क्योंकि अब तुम्हारे वस्त्र बदलने की घड़ी आ गई है और अब तुम में नए पत्ते खिलेंगे और हरे रंगीन नए वस्त्र की प्राप्ति होगी"। मैं सहम सा गया और ख़ामोश हो गया!! मैने मन ही मन कहा कि मै पेड़ प्रजाति का हूं मेरी प्रवृत्ति ही गंभीर है। मैं मज़ाक के लहज़े कैसे समझ सकता हूं!!बस अब मैं ख़ामोश होकर अपने समय की प्रतीक्षा करने लग गया। मुझे आभास हो गया था कि संसार का चक्र ही कुछ ऐसा होता है कि ये क्षण क्षण अपना रंग बदलता रहता है।

कड़क गर्मी के बाद अब ऋतू बदल चुका था आसमान में काले काले मेघों का आना जाना प्रारंभ हो चुका था, अब मेरी खामोशी और धैर्य दोनो टूट जाते हैं। "अरे! अब तो मानसून का मौसम आ गया अब मुझमें भी नए पत्ते फूटेंगे और नए फूल आयेंगे , मैं भी हरा भरा हो जाऊंगा।" मंद सुगंध हवाओं का आनंद लेते हुए मैं मदमस्त था। रात दिन तेज़ बारिश और हवाओं का आनंद लेता हू कुछ दिवस बीतने के बाद मुझे आभास होता है कि मेरे जड़ और तना के संधि भाग में श्वेत रंग के नए प्रस्फुटन हो रहे है मैं प्रसन्न हो जाता हुं कि मेरे नए नए कोपलों का आना प्रारंभ हो गया है। मैं निजानंद में परिपूर्ण था इसी क्षण मुझे किसी के खिलखिलाने की आवाज़ सुनाई देने लगती है जैसे कोई मुझपे हंस रहा हो! मैं सहम जाता हूं और फिर से मैं स्वयं को ध्यान से देखने लगता हूं। तो पाता हूं कि मेरे अंगों पर जो प्रस्फुटन होता है वो मशरूमों का प्रसफुटन था। मैं निराश हो जाता हूं अब मेरी ताक़त पूरी तरह से टूट गई थी। मेरे पांव कमजोर पड़ गए थे मेरे जड़ तंत्र की संधियां तेज बारिश के कारण सड़ चुकी थी। मेरी उम्मीद इस क्षण के बाद टूट जाती है तभी मैं देखता हूं मेरे सामने से प्रबल तेज हवा मेरी ओर बढ़ती आ रही है। , मैं खुद को संभालने की कोशिश  कर ही रहा होता हूं लेकिन  नहीं संभाल पाता और टूटकर बिखर जाता हूं। आखिरी सांस में मेरा कहना था कि जिस बारिश से मुझे पूरी उम्मीद थी ,उसी बारिश ने आज मुझे तोड़ दिया। मुझे समझना चााहिए था की मैं संसारी हूं और मुझे किसी भी सांसारिक वस्तु से आशाएं नहीं रखना चाहिये था। अब मेेरा कहानी यहीं पर खत्म होता है।

~ मनीष "असमर्थ"







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