काल्पनिक आनंद से लेकर कलम से उम्मीदें ~ मनीष कुमार "असमर्थ"

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काल्पनिक आनंद से लेकर कलम से उम्मीदें 


मेरे पंख होते तो मैं भी किसी विरान सुनसान नृत्यशाला में चला जाता जहां चूं चूं करती चिड़ियों के संगीत को सुन पाता!संगीत में जान डालने वाली धुन मिलाती वीणावत उस झरने के झनझनाहट को सुन पाता! पांव में घुंघरू बांधकर नाचती नृत्यांगना मोर और उसकी सहायिका रंगीन नृत्यांगनाओ तितलियों के नृत्य का आनन्द ले पाता! जिनकी थिरकन रुक ही नहीं रही हैं। तबले पे थाप सा बाघ की दहाड़ बहुत ही आकर्षक लग रहा होता! तेज और धीमी गति से आती हवाएं जब पेड़ों और झाड़ियों से टकराती तो मानो लग रहा होता जैसे कोई संगीतज्ञ बांसुरी की धुन से संगीत में अमृत घोल रहा है! हिरणों की झुण्डों की दौड़ से मानो हारमोनियम के धुन निकल रहे होंते जो संगीत में महत्वपूर्ण योगदान देता है। बंदरों का एक पेड़ से दुसरे पेड़ पर छलांग लगाना जैसे करताल की धुन अंकुरित हो रही होती। और कोयल, खंजन, पपीहा, टिटहरी आदि पक्षियों की आवाज़ें ऐसे लग रही होतीं जैसे कोई अलाप भर रहा हो। इस हृदय मोहित विकसित संगीत संगम जिसका आनन्द ले पाता!


                पर अफसोस मेरे पास तो पंख ही नहीं है।और अगर पंख होते तो मैं भी पक्षियों और जानवरों की तरह लोगों के नुकीले बाणों का शिकार हो जाता। लोग तीक्ष्ण बाण छोड़ रहे होते कि ," देखो अब इसके पर निकल आए हैं! ,बहुत उड़ने लग गया है!,उड़ले जितना उड़ सकता है !,पानी दाना चुगने तो धरती पे आएगा न!, जो जितना उड़ता है वो इतना ही नीचे गिरता है!" आदि आदि। अच्छा है मेरे पंख नहीं है और वैसे भी मुझे प्राकृतिक संगीत की क्या जरूरत ? ये तो कल्पना की धुन हैं मै तो पाश्चात्य संगीत का लोभी हूं और इसलिए वन संपदा को नष्ट करके पाश्चात्य संगीत की ओर प्रवेश कर रहा हुं। अच्छा ही कर रहा हुं न! ये भी प्राकृतिक चक्र का हिस्सा है।


शायद मेरे कलम में इतनी ताक़त हो! कि पेंसिल के रंग सा सीमेंट और कारखानों के चित्र त्रुटि को हटाकर इस धरती जैसे सुंदर पृष्ठ पर हरा रंग फिर से भर दे!काली होती नदियों में फिर से हल्का नीला रंग भर दे! पहाड़ों में हुई खुदाई को फिर से पाट दे! पिघलती हिमालय को फिर से विशाल बना दे! लुप्त हो रहे नवीन रंगीन पशु पक्षियों को नया आकार दे दे!, प्रदूषित काले आकाश में उज्ज्वल आसमानी रंग को भरदे! मेरे हाथ में रखा ये कलम तपती उस सुरज के ताप को हटाकर कम तापमान वाला करदे! चमकती चंदा के दाग़ को हटाकर फिरसे प्रज्ज्वल करदे! टूटती हुई पुच्छल तारा को उठाकर फिर से उसी आसमान में जड़ दे! रात्रि में काले आकाश में उड़ती हवाई जहाज और राकेटों की बल्ब की जगह सारे तारों के टिमटिमाहट को आकाश में फिरसे भर दे! 


विश्वास है प्लास्टिक से बनी मेरी कलम में इतनी ताक़त है कि सारे चीज़ों को फिर से उकेर पाएगा। ~ मनीष कुमार "असमर्थ"

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