नर्मदा के प्रारंभिक स्वभाव ' ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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'नर्मदा के प्रारंभिक स्वभाव '
कृंदन करती आह्लाद विहल,
विह्वल सी है ये निश्चेतन।
पग पंक बने शिला पंख बने,
तपाक सी भागी निष्पतन।।
कुटिलता के रोष में राशि बनी,
शशि की शीतलता शांत धनी।
सिर श्वेतधार, श्याम शिलबेनी
कारूण्य धैर्य, मैकाल सुश्रेंनी
कृष क्रौंच पे बाण लगी तन में,
आहात हुई हो युग्म मिलन।।
हाथ पसारि नीर भरि लोचन
अभ्याहत भागीं अनाहतन।
कृंदन करती आह्लाद विहल,
विह्वल सी है ये निश्चेतन।
पग पंक बने शिला पंख बने,
तपाक सी भागी निष्पतन।।
बनी खंजर वेग सी धारा ये,
घड़ घड़ ज्यों, वज्रपात घनी।।
कपटकोप से काल बनी।
ये शांत चंद्र सी बनी ठनी ।।
छवि कौंध सी चमकी नयनन में,
मरीची की बिंब की तीक्ष्ण किरण।
पट भूषण त्याग बनी जोगन,
तपाक सी भागी निष्पतन।।
कृंदन करती आह्लाद विहल,
विह्वल सी है ये निश्चेतन।
पग पंक बने शिला पंख बने,
तपाक सी भागी निष्पतन।।
प्रकृति की अश्रु नीर बनी
अंचल में तरु पट बांध चली।
वे शरद में सांस सुहावनी सी।
वे ग्रीष्म के आंच में ओढ़नी सी।
वे ढाकती मैकल नंदिनी को
वे साल के पेड़ हैं चांदनी सी।
पोटली में धरा जो प्रेम रतन।
लहकता रहा मैकाल सदन।।
कृंदन करती आह्लाद विहल,
विह्वल सी है ये निश्चेतन।
पग पंक बने शिला पंख बने,
तपाक सी भागी निष्पतन।।
अमर्ष आग के आवेग में
नम्र नर्मदा,क्रुद्ध बन गईं।
ज्वारधार जीव के हित में
शांत चित्त सिद्ध बह गईं।
रजत रंग की कंगन पहने
हिम ज्वाला की लव बन गईं।
वे क्रोधकांती बन गईं कीर्तन।।
वो शान्तचित्त सी अचिंतन।।
कृंदन करती आह्लाद विहल,
विह्वल सी है ये निश्चेतन।
पग पंक बने शिला पंख बने,
तपाक सी भागी निष्पतन।।
प्रकृति प्रेमी
अमरकंटक अनुपपुर (मध्यप्रदेश)
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