एक गांव शहर जाता है..!
एक गांव शहर जाता है।
थोड़े ही दिनो में ख़ुद शहर में तब्दील हो जाता है।
सपने ऊंचे मीनारों से हो जाते हैं।
कभी फिल्म सिटी बन जाने का मन करता है।
कभी यूपीएससी के लिए एजुकेशन हब!
कभी आईआईटी जाकर आईटी कैपिटल बन जाने का मन करता है।
कभी मन करता है जेएनयू जाकर कैपिटल ऑफ इंडिया बन जाने का।
कभी लगता है कि बीएचयू जाऊं और प्रोफेसर बनके युनिवर्सिटी हो जाऊं।
कभी लगता है कि लाल बहादुर मार्ग से होते हुए गांधी सिटी हो जाऊं।
लेकिन जैसे ही मन गुवाहाटी सा लगता है।
तो गंवारो की याद आ जाती है।
यादें गवारों के बीच में ही बसाहटें बना रखी थीं।
चमचमाते शहर को एक दिन उनके पास लौटना ही पड़ा।
थका सा तनाव लिए, खाली हाथ।
विकसित शहर को भी उनकी ओर भागना ही पड़ा।
लेकिन उसकी शहरबाजी उनके सामने कहां चलने वाली थीं..?
शहर के रंगत को।
खेतों की हरियाली,
झरनों की संगीत, कोयल की गूंज,
आम और अमरुद,
के आगे आखिर झुकना ही पड़ा।
दो दिन के लिए आया था,
एक उम्र उनके बीच रुकना ही पड़ा!
दो दिन बाद वो भी गांव हो चला।
लेकिन गंवारों के बीच आए उस पुराने शहर का बनावट,
हमेशा के लिए बेढंगा सा हो चुका था।
खपरैल अब छत बनने जा रहे थे।
बूढ़ा गांव अब अंधा सा हो चुका था।
- असमर्थ
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