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आंखों को उजाला चाहिए।

 आंखों को उजाला चाहिए। भूखों को निवाला चाहिए।। जिनके दहलीज़, सोने के बने हों। उन्हें क्या हुज़ूर-ए-वाला चाहिए।। नज़र अंदाज़ आंखें,उक़ूबत की हैं मेरी। ऐ अदालत मुझे ,अभी फैसला चाहिए।। चिड़ियां को कोई और चिड़ा ले गया। मुझे भी कोई और घोंसला चाहिए।। टूट चुका है सब्र ,मेरा इम्तिहान देते। आज़म मुझे थोड़ा,और हौसला चाहिए।। ~ असमर्थ 

समन्दर बोलता है

 जब तुम चुप रहते हो तो उसका जादू मंतर बोलता है। जब तुम बोलते हो तो सूखा समंदर बोलता है। हड़तालों को सन्नाटों में जैसे ही बदला जाता है। तब तुम्हारा अनशन अंदर ही अंदर बोलता है। तवारीख, वार की खामोशी रहती हैं दिसंबर तक जनवरी के बाद तुम्हारे लिए ये कैलेंडर बोलता है। चिंगारी लेने गए थे, चिमोट लाए सुरज को हाय! तौबा हाय! तौबा बवंडर बोलता है। पानी से पसीना अलग करने में दफ्न हुईं यातनाएं  नांगेली, निर्भया बनकर हर एक खंडहर बोलता है।

शायराना चला जाएगा...!

 नजरों से नज़राना चला जाएगा। बटुए से इश्क खजाना चला जायेगा।। गर मोहब्बत की खुशबू न रही एक दिन। लोगों के जेहन से शायराना चला जायेगा।। कौन होता है इस दुनियां में टूटे दिल वालों का। शेर न रहा तो आशिकों का आशियाना चला जायेगा। रोते हंसते ट्रकों का चलना,पीछे लिखे लहजों से है। चंद लाइनें गई तो ट्रक का आना जाना चला जायेगा।। कसीदे कसके लिखता रह तू असमर्थ। नहीं तो शेर के बिना बेसबब जमाना चला जायेगा।। ~ मनीष कुमार 'असमर्थ' अमरकंटक अनुपपुर मध्यप्रदेश 6263681015

अब तुझे कहां ढूंढूं?

 चौराहों पे तो तेरी यादें बस रह गईं हैं,अब तुझे कहां ढूंढूं? किताबों में दबी तस्वीर,अंगूठी, गुलाब भी ले गई तु,अब तुझे कहां ढूंढूं..? एक माफ़ी न मांगने से ऐसे ही, छोड़कर कोई चला जाता है क्या..? एक और गुनाह करना है ईश्क दोबारा करके,तू ही बता दे अब तुझे कहां ढूंढूं? वीज़ा लेकर निकल गया,तुझे ढूंढने के लिए। जाने किस मुल्क में, किस जगह, कहां ,अब तुझे कहां ढूंढू? मैंकदा अचानक जाता था कभी, तो तेरा नाराज़ चेहरा सामने ही आ जाता था। मैं वहीं रहता हूं अब,अचानक भी तू कभी नहीं दिखी वहां,बोल न अब तुझे कहां ढूंढू.? ~असमर्थ 

वो छोटी बनी रही।

 वो छोटी बनी रही। मैं बड़ा बना रहा। वर्णमाला के क्रम में आगे आने से  मैं आगे ही बना रहा। वो पुष्पपथिनी* फूल बनी रही। मैं हमेशा जड़ बना रहा। वो पहाड़ों की रानी नदी बनी रही। मैं खारा समंदर बना रहा। वो आंसू बनी रही। मैं आंख बना रहा। वो पृथ्वी बनी रही। मैं आकाश बना रहा। वो गर्भ बनी रही। मैं भ्रूण बना रहा। वो सती बनी रही। मैं क्रूर बना रहा।  -असमर्थ *पुष्पपथिनी का अर्थ गर्भधात्री है।  

एक और केंचुली छूट गया..!

 एक और केंचुली छूट गया..! वर्षों से पड़े पुराने मील के पत्थरों में। एक नया पन देखता हूं। जब भी उस सड़क से गुजरता हूं। लगता है एक और केंचुली छूट गया। सोचा मंजिल के पास हूं। लेकिन पत्थर ने बोल कर कह दिया। अभी तो दूरी ही तय करो। दोराहा में एक रास्ते को चुनना होगा। असमंजस से गुजर जाने पर लगेगा। निर्मल पानी से काई का सफाई हो गया हो जैसे। आंगन की तरह स्वच्छ छायादार छोटी सड़क को त्यागकर। तलाश में पथरीले कच्ची सड़क को अपनाना। जिससे होते हुए शहर के शुकुन गुजरते हों। खग शिशु का कठोर आवरण को त्यागने जैसा है।                                                                                              - असमर्थ 

एक गांव शहर जाता है..!

  एक गांव शहर जाता है। थोड़े ही दिनो में ख़ुद शहर में तब्दील हो जाता है। सपने ऊंचे मीनारों से हो जाते हैं। कभी फिल्म सिटी बन जाने का मन करता है। कभी यूपीएससी के लिए एजुकेशन हब! कभी आईआईटी जाकर आईटी कैपिटल बन जाने का मन करता है। कभी मन करता है जेएनयू जाकर कैपिटल ऑफ इंडिया बन जाने का। कभी लगता है कि बीएचयू जाऊं और प्रोफेसर बनके युनिवर्सिटी हो जाऊं। कभी लगता है कि लाल बहादुर मार्ग से होते हुए गांधी सिटी हो जाऊं। लेकिन जैसे ही मन गुवाहाटी सा लगता है।  तो गंवारो की याद आ जाती है। यादें गवारों के बीच में ही बसाहटें बना रखी थीं। चमचमाते शहर को एक दिन उनके पास लौटना ही पड़ा। थका सा तनाव लिए, खाली हाथ। विकसित शहर को भी उनकी ओर भागना ही पड़ा। लेकिन उसकी शहरबाजी उनके सामने कहां चलने वाली थीं..? शहर के रंगत को। खेतों की हरियाली,  झरनों की संगीत, कोयल की गूंज, आम और अमरुद, के आगे आखिर झुकना ही पड़ा। दो दिन के लिए आया था, एक उम्र उनके बीच रुकना ही पड़ा! दो दिन बाद वो भी गांव हो चला। लेकिन गंवारों के बीच आए उस पुराने शहर का बनावट, हमेशा के लिए बेढंगा सा हो चुका था। खपरैल अब छत बनने जा र...