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मारा गया अंत में...!
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वो घूरता गया, फूस फुसाकर, उसे प्राकृतिक स्वभाव, कह दीं। वो यौन कर्मी के पास गया, पुरुष की, प्राकृतिक आकांक्षाएं, कहकर बातें ख़त्म कर दी गईं, एक वो था, जो दो मीठी सात्विक बातें, करना चाहा, उसपे शंकाएं टूट पड़ीं, अंजान है इसपे भारोसा नहीं.! ये मुझसे बातें क्यों करना चाहता है.? इसकी सोच लटक होगी! महिला उत्पीड़क कहा गया। फिर एक दिन, पेड़ गिरने से , मारा गया अंत में ये..! ~ असमर्थ
आज़ रहने दो कल करते हैं।
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आज़ रहने दो कल करते हैं। वो जो सवाल थे अब करते हैं। जंगली फूल को नुमाईश की जरुरत थी। न जाने झाड़ी पर्दा क्यों करते हैं? इम्तिहान में मैंने सारे जवाब गलत किए। फिर उनकी नजरें मेरी नकल क्यों करते हैं? वो चाहते हैं कि मैं मर जाऊं एक दिन। जैसे ही मर जाता हूं,वो जिंदा क्यों करते हैं? उनके आंचल में खुद को दफ्न कर लिया मैने। उनकी पाज़ेब मेरी कब्र तैयार ही क्यों करते हैं.? ~असमर्थ
कौन है जो कातिल बना फिर रहा है शहर में?
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कौन है जो कातिल बना फिर रहा है शहर में? कौन है जो खंजर लिए,फिर रहा है शहर मे.? कौन है जो इस शहर को खौफ से भर दिया? कौन है जो हसीन बने,फिर रहा है शहर में? किसने शहर में ख़ून खराबा कर रखा है? कौन है जो लाल दुपट्टा लिए फिर रहा है शहर में? सारे लड़के काले धुएं से मरते जा रहे हैं। कौन है जो आग लगाता, फिर रहा है शहर में? बिना कोई जुर्म, बिना कोई मुजरिम,बिना कोई कायदा। कौन है जो सज़ा बांटते फिर रहा है शहर में.? ~असमर्थ
इश्क एक खीझ ...!
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मैं मांसाहारी हूं.. न? बार बार कहती थी। मेरा दिमाग़ मत खाओ! दिमाग मत चाटो! मेरा मांस मत नोचो! मुझे मत पकाओ! मेरा भेजा फ्राई कर दिए! मेरा कान खा लेते हो तुम! मैं जानता हूं कभी तुम्हे प्रेम ही नहीं था मुझसे..! फिर भी हड्डी चूसता था! हड्डी चबाता था! चुल्लूओं लहू पीता था! तलवे चाटता था। बाहें निचोड़ता था। तुम सच कहती थी। मैं असमर्थ हूं..! तुम्हारे योग्य ही नहीं हूं! इसलिए अब खुद की किस्मत पे! दांतो तले उंगली दबाता हूं। खुद का होंठ चबाता हूं! दांत पीस कर रह जाता हूं! याद में मूंह की खा जाता हूं। अब तो मुझे... खून का घूंट पीकर रहना पड़ता है। कोई स्वाद मेरा अंग ही नहीं लगता। तुम्हारा जान खाने से ही मेरा पेट भरता है। ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
क्या करते जहर को साथ में रखना ही था।
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क्या करते जहर को साथ में रखना ही था। पीते या न पीते, हमें तो मरना ही था। अक्स ने उस गली में छोड़ दिया, रूह ने इस गली में। कोई चले या न चले, लगा उसे तो साथ चलना ही था। पौधा लगाकर आसमां से धुआं हटादी मैने। उन्हीं सांसों को कत्ल मेरा, एक दिन करना ही था। फटा जेब जेब में बटुआ, बटुए में थी दुनियां मेरी सफर में मैं साथ में जेबकतरा, आज उसे बिछड़ना ही था।। सुरज उसके तरफ थे , चांद सितारे भी थे उसी के तरफ़ । फिर तो सारी दुनियां को, एक दिन बिखरना ही था। ~ असमर्थ
लहराते चुन्नी को बहने दे अपनी।
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लहराते चुन्नी को बहने दे अपनी। खुलें बालों को ऐसे रहने दे अपनी ।। आंख बंद करके यूं ही मुस्कुराते रह, दुनियां वालों को कह लेने दे अपनी ।। गोरे ठुड्डी को मुठ्ठी से टिकाए रख आज । तिरछे नज़रों को मिल लेने दे अपनी।। गजरे को कलाई में ऐसे ही चढ़ाये रख। कंगन को इज़हार-ए-इश्क़ कर लेने दे अपनी।। काजल वाली चिड़िया रोज़ दिखा कर छत से । मुझे भी सूखी आंख, सेंक लेने दे अपनी। असमर्थ
एकांत गांव
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शांत रात, एकांत रात, जंगल के मध्य, गांव के भूतैल पुराने घर, फर्श पे आह्टें, गलियों में सन्नाटे, कुत्तों की भौं भौं, दरवाज़े की चुरचुराहटें, परदे का फट फट, हवाओं की फुसफुसाहटें, टिड्डों की कट कटाहटें, बरखा की टिप टिप, डरावने परछाईं, सनसनाती काली रात के बीच, अचानक स्त्री चिल्लाई। कुर्सी पे बैठा हृदय काँऽऽऽप गया..! डरे हुए आंख सो गए। सुबह कानों में आवाज़ें गूंजने लगी। कल रात किसी स्त्री की बेरहमी से हत्या कर दी गई है। ~असमर्थ
तू पुकारे अगर तो मैं चला आऊंगा।
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तू पुकारे अगर तो मैं चला आऊंगा। जिंदा आईन का अब मैं पता लाऊंगा। तेरे ईमानदार जमीं को जमींदार ले गया। तेरे हिस्से की नुज़ूल मैं अता लाऊंगा। चुनाव आने वाले हैं,मेरा वादा है तुझसे पंचवर्षीय शान-ए-शौकत का मज़ा लाऊंगा। तेरी खुशी,तेरा प्यार,तेरे लोग तुझे सौगात में दूंगा तेरी ख़ाक होने का अब मैं नया नशा लाऊंगा। दुनियां बढ़ती गई अच्छाई से अच्छाई की तरफ़। अच्छाई से अच्छा लेकर,तेरा बुरा लाऊंगा। ~असमर्थ
आंखों को उजाला चाहिए।
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आंखों को उजाला चाहिए। भूखों को निवाला चाहिए।। जिनके दहलीज़, सोने के बने हों। उन्हें क्या हुज़ूर-ए-वाला चाहिए।। नज़र अंदाज़ आंखें,उक़ूबत की हैं मेरी। ऐ अदालत मुझे ,अभी फैसला चाहिए।। चिड़ियां को कोई और चिड़ा ले गया। मुझे भी कोई और घोंसला चाहिए।। टूट चुका है सब्र ,मेरा इम्तिहान देते। आज़म मुझे थोड़ा,और हौसला चाहिए।। ~ असमर्थ
समन्दर बोलता है
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जब तुम चुप रहते हो तो उसका जादू मंतर बोलता है। जब तुम बोलते हो तो सूखा समंदर बोलता है। हड़तालों को सन्नाटों में जैसे ही बदला जाता है। तब तुम्हारा अनशन अंदर ही अंदर बोलता है। तवारीख, वार की खामोशी रहती हैं दिसंबर तक जनवरी के बाद तुम्हारे लिए ये कैलेंडर बोलता है। चिंगारी लेने गए थे, चिमोट लाए सुरज को हाय! तौबा हाय! तौबा बवंडर बोलता है। पानी से पसीना अलग करने में दफ्न हुईं यातनाएं नांगेली, निर्भया बनकर हर एक खंडहर बोलता है।
शायराना चला जाएगा...!
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नजरों से नज़राना चला जाएगा। बटुए से इश्क खजाना चला जायेगा।। गर मोहब्बत की खुशबू न रही एक दिन। लोगों के जेहन से शायराना चला जायेगा।। कौन होता है इस दुनियां में टूटे दिल वालों का। शेर न रहा तो आशिकों का आशियाना चला जायेगा। रोते हंसते ट्रकों का चलना,पीछे लिखे लहजों से है। चंद लाइनें गई तो ट्रक का आना जाना चला जायेगा।। कसीदे कसके लिखता रह तू असमर्थ। नहीं तो शेर के बिना बेसबब जमाना चला जायेगा।। ~ मनीष कुमार 'असमर्थ' अमरकंटक अनुपपुर मध्यप्रदेश 6263681015
अब तुझे कहां ढूंढूं?
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चौराहों पे तो तेरी यादें बस रह गईं हैं,अब तुझे कहां ढूंढूं? किताबों में दबी तस्वीर,अंगूठी, गुलाब भी ले गई तु,अब तुझे कहां ढूंढूं..? एक माफ़ी न मांगने से ऐसे ही, छोड़कर कोई चला जाता है क्या..? एक और गुनाह करना है ईश्क दोबारा करके,तू ही बता दे अब तुझे कहां ढूंढूं? वीज़ा लेकर निकल गया,तुझे ढूंढने के लिए। जाने किस मुल्क में, किस जगह, कहां ,अब तुझे कहां ढूंढू? मैंकदा अचानक जाता था कभी, तो तेरा नाराज़ चेहरा सामने ही आ जाता था। मैं वहीं रहता हूं अब,अचानक भी तू कभी नहीं दिखी वहां,बोल न अब तुझे कहां ढूंढू.? ~असमर्थ
वो छोटी बनी रही।
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वो छोटी बनी रही। मैं बड़ा बना रहा। वर्णमाला के क्रम में आगे आने से मैं आगे ही बना रहा। वो पुष्पपथिनी* फूल बनी रही। मैं हमेशा जड़ बना रहा। वो पहाड़ों की रानी नदी बनी रही। मैं खारा समंदर बना रहा। वो आंसू बनी रही। मैं आंख बना रहा। वो पृथ्वी बनी रही। मैं आकाश बना रहा। वो गर्भ बनी रही। मैं भ्रूण बना रहा। वो सती बनी रही। मैं क्रूर बना रहा। -असमर्थ *पुष्पपथिनी का अर्थ गर्भधात्री है।
एक और केंचुली छूट गया..!
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एक और केंचुली छूट गया..! वर्षों से पड़े पुराने मील के पत्थरों में। एक नया पन देखता हूं। जब भी उस सड़क से गुजरता हूं। लगता है एक और केंचुली छूट गया। सोचा मंजिल के पास हूं। लेकिन पत्थर ने बोल कर कह दिया। अभी तो दूरी ही तय करो। दोराहा में एक रास्ते को चुनना होगा। असमंजस से गुजर जाने पर लगेगा। निर्मल पानी से काई का सफाई हो गया हो जैसे। आंगन की तरह स्वच्छ छायादार छोटी सड़क को त्यागकर। तलाश में पथरीले कच्ची सड़क को अपनाना। जिससे होते हुए शहर के शुकुन गुजरते हों। खग शिशु का कठोर आवरण को त्यागने जैसा है। - असमर्थ
एक गांव शहर जाता है..!
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एक गांव शहर जाता है। थोड़े ही दिनो में ख़ुद शहर में तब्दील हो जाता है। सपने ऊंचे मीनारों से हो जाते हैं। कभी फिल्म सिटी बन जाने का मन करता है। कभी यूपीएससी के लिए एजुकेशन हब! कभी आईआईटी जाकर आईटी कैपिटल बन जाने का मन करता है। कभी मन करता है जेएनयू जाकर कैपिटल ऑफ इंडिया बन जाने का। कभी लगता है कि बीएचयू जाऊं और प्रोफेसर बनके युनिवर्सिटी हो जाऊं। कभी लगता है कि लाल बहादुर मार्ग से होते हुए गांधी सिटी हो जाऊं। लेकिन जैसे ही मन गुवाहाटी सा लगता है। तो गंवारो की याद आ जाती है। यादें गवारों के बीच में ही बसाहटें बना रखी थीं। चमचमाते शहर को एक दिन उनके पास लौटना ही पड़ा। थका सा तनाव लिए, खाली हाथ। विकसित शहर को भी उनकी ओर भागना ही पड़ा। लेकिन उसकी शहरबाजी उनके सामने कहां चलने वाली थीं..? शहर के रंगत को। खेतों की हरियाली, झरनों की संगीत, कोयल की गूंज, आम और अमरुद, के आगे आखिर झुकना ही पड़ा। दो दिन के लिए आया था, एक उम्र उनके बीच रुकना ही पड़ा! दो दिन बाद वो भी गांव हो चला। लेकिन गंवारों के बीच आए उस पुराने शहर का बनावट, हमेशा के लिए बेढंगा सा हो चुका था। खपरैल अब छत बनने जा र...
पुराने नए की ओर भागे
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चूक से चूक की ओर भागे। तितलियां परिंदों की ओर भागे।। ऊंचे पहाड़ों से बेवफाई करके। नदियां गहरी समंदर की ओर भागे।। दिसंबर जनवरी से रिश्ता तोड़ दिया। जाड़े गर्मी नए संबंधों की ओर भागे।। रात की हवाएं, छलक छलक कर रोई। शाम की हवाएं सुबहो की ओर भागे।। ये चंदा, ये चकवा, ये मौसम का चक्का। नए को छोड़, पुराने घर की ओर भागे।। ~ असमर्थ
डिजिटल दुनियां से दूर का अनुभव
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डिजिटल दुनियां से दूर का अनुभव ढूंढते ढूंढते पहुंचा एक नई जगह, जहां नींद के लिए सितारों की जरूरत न थी, न पाने के लिए ख्वाहिशों की। सब कुछ मिल जाने का आसान तरीका था, इंतज़ार को भूलकर डूब जाने का। भींगे भींगे दिनों-सा ऐसे साथी मिल गए, रास्ते गुम गईं,मंजिलों का पता न चला, उड़ान का नया मज़ा इससे बेहतर कहां.? इसे जितनी दफा याद करता हूं, हर बार नया नया सा लगता है। बारिशों,सर्दियों, गर्मियों की यादें, खुद को आवारा बनाने के बाद आते हैं, कबसे देख रहा हूं इस चांद को, क्यूं ये कभी बूढ़ा नहीं दिखता? मैं बूढ़े होते हुए भले दूर चला जाऊं, इसे तो लम्बे समय तक यहां रहना चाहिए, अगली पीढ़ी को भी इसके जिक्र का मौका मिले। कुछ इस तरह से ही मन बहका रहता, काश एक बारी दिल लग गया होता इनसे, इन आंखों में छलकता रहता प्यार। अब तो सारी ख्वाब ही गुम गई, मोबाईल ने आधे नींद में ही उठा दिया! ~मनीष कुमार ' असमर्थ' अमरकंटक अनुपपुर मध्यप्रदेश
लोहार का न्याय
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न्यायप्रक्रिया हयाती करम था,मिल जो गया। जंबाल दरिया में, खिल जो गया।। तराजू से बनाए अपने तलवार से ही, लोहार का नर्म दिल छिल जो गया। कानूनी चींटे की आंखों में चश्मा। काले में काला शा-मिल हो गया।। झूठे जाली जेब से पैसों के गिरते ही, सत्यवादी का मूंह था,सिल जो गया।। फौजदारी की फ़ौज में चूहिया फ़ौजी, बिल-बिलों से,असमर्थ हिल जो गया।। ~ "असमर्थ"
बूंद
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मन आमोद करती आंखों से बहती बूंदे। धुल देती हैं यादों में रखी बिछोह की आखिरी मुलाकातें। शैंपू से सुगंधित केश, गाल को छूते हुए गरजे थे, अब भी फटे शुष्क भूमि को, नम कर देती है, जब आकाश से गिरती हैं बुंदे। भुजंग द्रव बूंदों सा, तुम्हारी मुस्कान के साथ, वो आखिरी अलविदा, देह नील करके, प्राण शांत कर दीं थीं। फूलों में चिपके, शीत जलबिंदु, सुनहरे भूरे लटों पे, माणिक की भांति, चित्त में चित्रित, तुम्हारी आखिरी चित्र। सूर्य का अग्नि, माथे से गिराती जलबिंदु, क्षणिक सुख देती हैं, जब टकराती हैं शीतल हवा। पहले घाव फिर मरहम, तुम्हारे साथ आख़िरी भेंट सा था। ~ असमर्थ
ठहराव
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जैसे कमलिनी के पराग में मग्न भौंरा, सूर्यास्त को भांप नहीं पाया, और बंद होती पंखुड़ियों ने, सूर्योदय तक के लिए ठहरा लिया उसे। वैसे ही एक कुशुम, जिसके लाल चुनरी में, किनारों पर जड़ी गोटेदार घुंघरू, छन् छन् छ न न न छन् , करते हुए ठप सा कैद कर लिया मुझे। ठहर जाना अप्राकृतिक तो नहीं! कोई दरिया ठहर जाता है, मीन के परिवार के लिए। ठहरे हुए डाली की तलाश करती है, कोई पंछी अपने घरौंदे के लिए। स्टेशन आने पर मेरा ठहरना भी, किसी रेलगाड़ी सा ही था ! ठहर गया.! जैसे बेरोजगार परदेशी पति, अपने प्रियतमा के प्रेम में, एक दिन के लिए घर में ठहर जाता है! ~असमर्थ
मेरी दीवाली
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मेरी दीवाली अधिया लेकर, उन्हारी के लिए..! ओल तलाशते, हांफते खुरखुरे गोड़। नागर की मुठिया पकड़े, छालेदार हाथ, कंटीले ढेलों से टकराती, बिछलती , फटी एड़ियां। निचोड़ते सर्द में कातिक की कटाई से, माथे और कखरी से चू रहे, कचपच पसीना। ये तेल की तरह, रेंग रहे हैं, किसी दीपक के बाती में। ताकि बाती का जलना भी। औरों के लिए, उजाला बन जाए। बनिहारी करके, करखी शाम में, लौटते मेरे हथेलियों द्वारा। पिसान से बने दिये का, जलना। क्षणिक उजाला लेकर, मेरे खपरैल को, राम का आयोध्या बना दिया! मनीष कुमार "असमर्थ" उमनिया अमरकंटक अनुपपुर मध्यप्रदेश 6263681015
गरीब की पंक्ति
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हवा बंद हुआ होगा,वहां भी कभी तूफ़ान आए होंगे। छत टपका होगा, वहां भी कभी बरसात आए होंगे। तुम जन्नतों में रहने का दावा करते रहते तो हो। मुझे मालूम हैं तुम भी उन्हीं झुग्गियों से आए होगे। बात बात पर उन गलियों को गालियां देने वालों। पक्का तुम कंचों से सनी वहीं की मिट्टी खाए हुए होगे। जहां तुम्हारी मां चूल्हा फूंकते फूंकते बूढ़ी हुईं हों। तुम कहते हो ऐसे लोग भला कहां से आए होंगे..? तुम भूल बैठे इन बसाहटों में जब हम पिंचर बनाते थे। अब कहते हो ये सारे लोग पराए थे पराए हो रहे होगें।
निगाहें की निगाहों से शिकायत...!
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Instagram Facebook page Quotes प्रकाशित निगाहें निगाहों से पूंछ रहीं हैं, कि क्या..?? बात क्या है..? तुम इंग्लिश टाइप गालियां देने वाले, अब ये हुजरात क्या है..? निगाहों ने कहा मैं मासिनराम बन,हमेशा बरसती रहती हूं। तुम तो ठहरे अल-हुतैब के! तुम्हें पता ही नहीं बरसात क्या है? मुझे याद है जब एक अमावस, तुम और मैं अकेले सड़क पर थे। अंधेरा था न! तुम जान ही नहीं पाए होगे,वो बीती रात क्या है..? पलकों से ईशारा करते हो,फिर नज़रे चुरा के भाग भी जाते हो..! किसी को आंखों का तारा कहते हो,पता भी है मुलाकात क्या है?? निगाहें ने जवाब दिया कसूर मेरा होता है,छूरी दिल पे चल जाती है। फिर छुप छुप के रोना मुझे पड़ता है , मालूम है मेरे हालात क्या है?? ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
बिछुरने का इज़हार
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Instagram Facebook page Quotes प्रकाशित आसमां खाली खाली सा है, जमीं खाई बनता जा रहा है । आज उनसे बिछुड़ने का जहर, मिठाई बनता जा रहा है।। मन करता और बहुत मन करता है, पाकीजों को कैद करलू । अब तो बढ़ती बढ़ती दूरी ही, परछाईं बनता जा रहा है।। आंधियों अब अलविदा का वक्त है, मिलेंगे किसी तूफानी में। नाव तो पत्थर का था ,अचानक ही हवाई बनता जा रहा है।। कुछ दीदियां मिलीं कुछ दादियां, कुछ भेल मिली कुछ पूरियां। टूटते कुनबे में वो ठिनगा अब सबका भाई बनता जा रहा है।। वे रिहायशी ढोल कुछ फटे बांसुरी से थे , सुस्त गरीबों के लिए। जाने क्यों आज से विलापित शहनाई बजता जा रहा है?? एक ईश्वर की तरह था उनमें से, मेरे तकदीर में नया चांद। हृदय के फटे चिथड़े किए,घावों में सिलाई पड़ता ही जा रहा है।। किताबों के कुछ पन्नों में छुपाए रखे थे, बेतरतीब बातें । अब तक राई सी थी, अब जाते जाते तराई बनता जा रहा है। ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
रक्षाबंधन :- प्लीज़ दीदी दीजिए न..!
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Instagram Facebook page Quotes प्रकाशित रक्षाबंधन :- प्लीज़ दीदी दीजिए न..! मुझे जाना है परदेश, हृदय भेंट कर लीजिए न! अंजुली भर पानी है, गर प्यासी हैं तो पीजिए न! कलाई सुनी है मेरी, रेशम डोरी तो भेजिए न! लाई हो जो ममता की मिठाई, प्लीज दीदी दीजिए न! आपका कड़वा मुंह क्यों है?? आप मुंह मीठा तो कीजिए न! रक्षास्नेह के आलावा क्या दूं ?? बेरोजगार भाई की तो सोचिए न! बंजर हुए को हरा आप ही करेंगी। इस परिवार में पानी सींचिए न! मुझे सर्दी है और आपका ये नया दुपट्टा!! प्लीज़ दीदी दीजिए न! मुठ्ठी में उपहार है.. थोडा सा आंख मूंदिए न! पिछले साल के आपके बिगड़े फोटो। वो सारे फ़ोटो देखिए न! मैं शैतान तो अब भी हूं, दीदी अब भी कान खींचिए न! आपका थप्पड़ आज भी है आपके पास, प्लीज दीदी दीजिए न! चुपके से फोन लेना अब भी आदत है मेरी..! मुझसे अब भी खिझिए न! मैं आपका पैसा फिर से चुराऊंगा..! पीठ पे धम्म सा पीटिए न! पापा के पास शिकायत भी करूंगा..। अब कलमों के बाल भींचिए न! साल बीते दिखे नहीं, इस रक्षाबंधन में दर्शन। प्लीज़ दीदी दीजिए न! ~ मनीष कुमार "असमर्थ...
नर्मदा के प्रारंभिक स्वभाव ' ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Facebook page Quotes प्रकाशित 'नर्मदा के प्रारंभिक स्वभाव ' कृंदन करती आह्लाद विहल, विह्वल सी है ये निश्चेतन। पग पंक बने शिला पंख बने, तपाक सी भागी निष्पतन।। कुटिलता के रोष में राशि बनी, शशि की शीतलता शांत धनी। सिर श्वेतधार, श्याम शिलबेनी कारूण्य धैर्य, मैकाल सुश्रेंनी कृष क्रौंच पे बाण लगी तन में, आहात हुई हो युग्म मिलन।। हाथ पसारि नीर भरि लोचन अभ्याहत भागीं अनाहतन। कृंदन करती आह्लाद विहल, विह्वल सी है ये निश्चेतन। पग पंक बने शिला पंख बने, तपाक सी भागी निष्पतन।। बनी खंजर वेग सी धारा ये, घड़ घड़ ज्यों, वज्रपात घनी।। कपटकोप से काल बनी। ये शांत चंद्र सी बनी ठनी ।। छवि कौंध सी चमकी नयनन में, मरीची की बिंब की तीक्ष्ण किरण। पट भूषण त्याग बनी जोगन, तपाक सी भागी निष्पतन।। कृंदन करती आह्लाद विहल, विह्वल सी है ये निश्चेतन। पग पंक बने शिला पंख बने, तपाक सी भागी निष्पतन।। प्रकृति की अश्रु नीर बनी अंचल में तरु पट बांध चली। वे शरद में सांस सुहावनी सी। वे ग्रीष्म के आंच में ओढ़नी सी। वे ढाकती मैकल नंदिनी को वे साल के पेड़...
युवा तन में कलह ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित युवा तन में कलह विद्यमान युवा में, निम्न कलह। व्यस्त अंग में अप्राकृतिक लय।। डगमगा मन , विकंपित ह्रदय। क्षीण ब्रह्माण्डधुरी (रीढ़) , आकाश गंग रक्त किसलय।। पदगमन पाताल, हस्त गिरी,गिरि मलय। सुख सागर गर्त, दुःख बना हिमालय।। पलकें अपलक, आंख निरालय। कण्ठ कठोर, तारुण्य दंत क्षय।। ब्रह्माण्ड भ्रष्ट, नष्ट श्र्वानेंद्रिय। नीरस रसिका, थमा घ्राणेन्द्रिय।। जननांग अस्थिर, स्थिर मलाशय। मंद ज्वालामुखी, बना पित्ताशय।। विकृत वायुमण्डल, बना अपच आमाशय। वृक्क में शिला, हुआ यकृत जलाशय।। इस तरुणी तन में, व्याधि प्रलय। धरणी धड़ में, पल कल्प प्रलय।। ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
समय : "मैं नाग हूं" ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित समय : "मैं नाग हूं" मेरा चाल टेड़ा मेढा है। यदि पलभर पलक झपकाई तो हाथ से निकल जाउंगा। मैं बिना पांव का हूं। कार्यशील सतह में धीमा रहता हूं लेकिन खुरदुरे किनारों से सरपट भाग जाऊंगा। मैं विषैला नाग हूं, तुम्हारे बालपन को डसकर कब तुम्हे वृद्ध बना दूं आभास नहीं होगा। मेरे डसने से तुम्हारे नर्म त्वचा कब सिकुड़ कर वृद्ध हो जाएं तुम्हें पता नहीं चलेगा..! मेरे कान नहीं है, सांसों के बीन पे नाचूंगा ये भ्रम कभी मत पालना..! न मै तुम्हारे सुखों के संगीत को सुन पाऊंगा। न ही तुम्हारे तकलीफों के चीख को। मैं असमर्थ हूं, मैं बिना अस्थि का कोमल देह वाला हूं। न तुम्हारे ताप को नियंत्रित कर पाऊंगा। न तुम्हारे शीत को। मेरे हाथ न होते हुए भी , मै असीमित कार्य करते हुए, अकर्मण्य हूं,चिरकाल से निद्रा में हूं। तुम अपनी ज़िम्मेदारी मुझपे मत छोड़ो। मैं सर्वदा से मूक रहते हुए , वर्तमान को इतिहास, भविष्य को वर्तमान बनाया है..! मैं मृत्यु का एक अपभ्रंश हूं। मुझे पालतू बनाकर मुझसे मत खेलो। मुझमें इतना गरल है कि अमी...
ये इश्क का शहर नहीं....~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित ये इश्क का शहर नहीं..... ये इश्क का शहर नही है... ये तो नफरतों की ऊंची इमारतें..! घृणाओं की चौड़ी सड़कें... चिड़ चिड़ापन लिए हुए ये ट्रैफिक.... हिंसक चौक, आंखे तरेरती भीड़, तनाव में भरे पार्क, खिसियाई बाज़ार... चिक चिक करती वाहनों की आवाज़ गालियां देती नालियों की बास और गुस्सैल बस्तियों से विकसित है। अगर यहां तुमने प्रेम करने का साहस किया..! तो पन्नियों में बोटी बोटी काटकर गांव भेज दिए जाओगे...! जहां तुम्हारा गांव.. बरगद के पेड़ के नीचे, चारपाई बिछाकर प्रतीक्षा रत होगी। जहां तुम्हारी मां , सड़क के किनारे, माथे पर एक हाथ रखे हुए, तुम्हारे टुकड़ों का इंतज़ार कर रही होगी...! तुम्हारे खेत - खलिहान तुम्हारे कटे हिस्सों के पसीने के प्यासे होंगे..! वो नदियां, वो झरने.. तुम्हारे रक्तरंजित गोश को नहलाने के लिए, व्याकुल हो रहे होंगे... आम के पेड़ों की डालियां तुम्हारे अव्यवस्थित अंगो को झूलाने के लिए उत्साहित हो रहे होंगे..! शहर से गर इश्क लेकर गांव गए ,तो टुकड़ों में जाओगे! क्योंक...
मक्खियां......~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित मक्खियां एक लाश के पीछे पड़ी भिनभिनाती मक्खियां। उसके वस्त्रों को नोचकर निर्वस्त्र करती...! उसके मांस को कुरेदकर लुहुलुहान करती..! सुनसान रास्तों में, बसों में... एक समूह बनाकर, उस अकेली बेचारी लाश को ताकती ये मक्खियां..! खुशबूदार लाश के रोमकूपों में चढ़कर अपनी बदबूदार काला धब्बा छोड़ती ये मक्खियां..! उसके हाथ , पांव को शक्ति विहीन करके बाल पकड़कर घसीटती ये मक्खियां...। उसके गंतव्य आत्मा को अपने क्रूरता के चोंच से बार- बार घोपती ये मक्खियां..! अगले ही दिन अखबारों में... असहाय लाश को चित्त करके दुष्कर्मी,बलात्कारी शब्द बनकर उभरती.. ये मक्खियां..! असमर्थ हूं मक्खी रोधी दवा बनाने में ऐसा क्या करूं?? जिससे भाग जाती ये मक्खियां............ ~ मनीष "असमर्थ"
"जल का स्वभाव" ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित विश्व जल दिवस की शुभकामनाएं....😊 "जल का स्वभाव" स्वभाव ही है बहना। ऊर्ध्व से अधो की ओर अवनति से उन्नति की ओर आदि से अंत की ओर शून्य से अनंत की ओर स्वभाव ही है मचलना अनियंत्रित इंद्रिय सा भूडोल अधिकेंद्रीय सा मनो उत्केंद्रीय सा प्रवर्तन नवचंद्रिय सा स्वभाव ही है सराबोर करना जैसे गुरुभक्ति से शिष्य हो जैसे प्रियतमा से प्रिय हो जैसे काया से आत्मीय हो जैसे शब्द से वर्तनी हो स्वभाव ही है लहराना धान के बालियों की तरह नागिन के गतियों की तरह रण में खड्ग चलाइयों की तरह अस्थिर परछाइयों की तरह..... ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
काल्पनिक आनंद से लेकर कलम से उम्मीदें ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित काल्पनिक आनंद से लेकर कलम से उम्मीदें मेरे पंख होते तो मैं भी किसी विरान सुनसान नृत्यशाला में चला जाता जहां चूं चूं करती चिड़ियों के संगीत को सुन पाता!संगीत में जान डालने वाली धुन मिलाती वीणावत उस झरने के झनझनाहट को सुन पाता! पांव में घुंघरू बांधकर नाचती नृत्यांगना मोर और उसकी सहायिका रंगीन नृत्यांगनाओ तितलियों के नृत्य का आनन्द ले पाता! जिनकी थिरकन रुक ही नहीं रही हैं। तबले पे थाप सा बाघ की दहाड़ बहुत ही आकर्षक लग रहा होता! तेज और धीमी गति से आती हवाएं जब पेड़ों और झाड़ियों से टकराती तो मानो लग रहा होता जैसे कोई संगीतज्ञ बांसुरी की धुन से संगीत में अमृत घोल रहा है! हिरणों की झुण्डों की दौड़ से मानो हारमोनियम के धुन निकल रहे होंते जो संगीत में महत्वपूर्ण योगदान देता है। बंदरों का एक पेड़ से दुसरे पेड़ पर छलांग लगाना जैसे करताल की धुन अंकुरित हो रही होती। और कोयल, खंजन, पपीहा, टिटहरी आदि पक्षियों की आवाज़ें ऐसे लग रही होतीं जैसे कोई अलाप भर रहा हो। इस हृदय मोहित विकसित संगीत संगम जिसका आनन्द ले पाता! ...
लक्ष्य प्राप्ति भाव क्रम ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित "लक्ष्य प्राप्ति भाव क्रम" संघर्षी तेरे जीवन की दिशा ही दुर्गम होगी। सुशांत शिला, तेरी सहन शीलता की क्रम होगी। अति आविष्ट घाम में, मृग मरीचिका की भ्रम होगी। छांव तेरे शत्रु होंगे, हवा भी निर्मम होगी। प्रारब्ध सारा शून्य होगा ,काल भी विषम होंगी। अत धुन तेरी खुद की होगी ,खुद तेरी सरगम होगी।. जब विफलता का भय होगा, रगड़ तेरी नम्र होगी। हृदय तेरा भग्न होगा, शुष्क दृग नम होंगी। उल्लास तेरी ऋण होंगी, नकारात्मक कदम होंगी। प्रज्ज्वल प्रकाश में भी, आंखों में तम होंगी। छिछला जलस्तर भी, चित्त में अगम होगी।। जब दृढ़ तेरा खिन्न होंगा,अदृढ़ता में सम होंगी। अत हार को भी जीत, द्रुतशीत ऊष्मगर्म होगी। नयन नीलिमा होंगी, नाल में नीलम होगी। तेरी आस कम होंगी, जब लक्ष्यबिंदु चरम होंगी जैसे निर्णय निकट होगी, वैसे युद्ध क्षद्म होंगी। उम्मीदें अनंत होंगी , समय अल्पतम होंगी। करोड़ों उलझनों में , जब तेरी ठोस श्रम होंगी। डगमगाती कोर में,स्वविश्वास भी परम होंगी। परित्यागी तो बन , तेरी कार्य ही आश्रम होगी। तू भागीरथ बन , तेरी गंगा अप्रतिम ह...
कहानी एक ठूंठ की ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित कहानी एक ठूंठ की शीत ऋतु ने मेरे तन पे ऐसे प्रहार किया है कि मेरी पत्तियां सूख गईं और मेरे कोमल शाखाये टूट चुकी हैं। अब लोगों ने अपने शब्दकोश में मेरा नाम पेड़ से बदलकर ठूंठ रख दिया है। मैं एक ठूंठ हूं ,( ठूंठ ने कहा) और आगे की कहानी मेरी ही है... शर्दियों का ऋतु बीत चुका है, अब वसंत का पूर्ण काल आ चुका है।जब बसन्त अपने मोहल्ले में होली मना रहा है तब रंगहीन बनकर मैं उसी के सामने अकेला खड़ा हो गया हूं, जब बसन्त प्रसन्नता के प्रवाह में नृत्य कर रहा है, तब मैं हजारों दबावों का बोझ लेकर, कांतिहीन छवि और सूखे होंठ लेकर उसी के सामने खड़ा हो गया हूं, भला कोई ऐसे करता है? कि किसी के पास लंबे वक्त के बाद सुखद क्षण आए और हम ये सोच कर निराश रहें कि इसका तो अच्छा समय आ गया है! मेरा कब आएगा? लेकिन मै निराश हूं! हताश हूं! मेरे प्रसन्नता के सिर को काटकर इस दुर्दिन सर्द ने अलग कर दिया है। केवल मेरे पास मेरा धड़ ही शेष बचा हुआ है,जिसे ही मैं अपनी इस संसार में अपनी वाजुदगी मानता हूं। मेरा एक सवाल खुद से है कि मैं इस अंजान भीड़ में अकेला ह...
" प्राकृतिक सम्पदा पे शत्रु का संदेह (रूस यूक्रेन युद्ध)" ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित " प्राकृतिक सम्पदा पे शत्रु का संदेह (रूस यूक्रेन युद्ध)" छिटकती आभा,लाल अंगारा, कोई विस्फोटक है क्या?? या पड़ोस का रहने वाला कोई अपना लोटक है क्या?? शायद सूरज फिसल के इस पार आने वाला है! उस पार से आ रहा है दुश्मन हो सकता हैं । सैनिको तैयार हो जाओ, आग का गोला लिया आत्मघाती हमला हो सकता है!! आग फैलाने की हिम्मत भी कर सकता है! वो उस पार का है, जल रहा है तो जलने दो न! हमे तो अंधेरों से छुटकारा मिलेगा न!! यहां लम्बे समय से अंधेरा कायम हैं... वो जलेगा तभी उजाला संभव है न! ..... शर्र-शर्र करती आवाज़ तलवार की वेग है क्या?? या फिसलती हवाओं की तेज है क्या?? ये तो हवा है, ये भी पड़ोस के तरफ से ही आ रहा है?? ऐ हवा! अकड़ मत तू अपना रूख बदल दे! वरना मैं तुमसे क्रुद्ध हो जाऊंगा। सांसे नहीं लूंगा। ज़मीन मैंने ही बांटा है। ये मेरी मिट्टी है, वो उसकी तो ये हवा भी बंट गई है न...!! तेरी हिम्मत कैसे हुई उधर से आने की, शीतलता नहीं चाहिए मुझे तेरी, मैं तपता हुआ ही ठीक हूं न! काला धुआं दिख रहा है, मिसाइल छूट रहे ह...
"नर्मदा के जलधारा की असमंजस्य भाव" ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित "नर्मदा के जलधारा की असमंजस्य भाव" विकास का उल्लास है ये, या वेदना विलास है ये। बहाव का भाव है कि ठगी सी हताश है ये।। नाद या निनाद है ये, शांत या विषाद है ये। क्रोध की ये वेग है, या आंसूओं की तेज है ये।। अलगाव का ये कृंद है, या दो हृदय का द्वंद्व है ये। रीझ है या खीझ है ये, या वियोग की टीस है ये। कंकड़ों की चीर है ये, या तरु की पीर है ये। प्रवाह या प्रवीर है ये, अर्वाचीन या प्राचीन है ये। ~ मनीष कुमार "असमर्थ"©®
मेरी चाहत ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित "मेरी चाहत" मेरी चाहत ही बेमिस्ल है, ऐसे ही खिलना चाहता हूं। हु- ब-हू टिमटिमाता है रात में जो, उसे तोड़ लाना चाहता हूं।.. उसकी एक मुस्कुराहट से ही,टुकड़ों में बिखर जाना चाहता हूं।। मेरी चाहत ही बेढब है, नींद में सपनों से जीतना चाहता हूं। मैं तो अंजुली में रखा कुछ बूंद हूं,या किनारों मे पड़ा कुछ रेत हूं।।, वो रंग धुरेड़ी सी मैं फागुन सा हूं, वो रंग पंचमी सी मैं मास चैत्र सा हूं। पहली नज़र अंदाज से ही,पल में बह जाना चाहता हूं।। मेरी चाहत ही बेफ़ाइदा है, जवानी में ही ढह जाना चाहता हूं।। रास्तों में इस ओर कांटों और कंकड़ों के अंबार है। सुदूर है ये मंजिल, तुम्हें आना इस पार है।। ये रास्ते युद्ध से हैं,नुकीले शीशों को वार है। न पहले जीत थी और न अब भी हार है।। उसकी कदमें तो मेरी ओर उठे!! पांव तले कली बनकर बिछ जाना चाहता हूं। मेरी चाहत ही तन्य है, उसकी ओर खिंच जाना चाहता हुं। ओस ने सर्द की कीमत बताई, भाप ने तप्त देह की, सांस ने तन की कीमत बताई,पतझड़ ने पेड़ की एक बार उसकी तप्त आंखे तो मेरी ओर उठें। भाप-ओस, ...
कलम ने ही तो साथ दिया है ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित "कलम ने ही तो साथ दिया है", - थके हारे हुए, हताश होकर कई किलोमीटर चलने के बाद जैसे ही अपने कमरे में घुसा! घना अंधेरा, कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। किताबें बिखरी हुईं थीं, ए -4 साइज के पेपर फैले हुए थे जैसे ही धोखे से कागजों में पांव पड़ता, खर्र सी आवाज़ आती , दिल से चित्कार हो उठता कि अरे यार मैने विद्या को पांव मार दी! जैसे तैसे संभलते हुए उन कागजों और किताबों के मेले में अपने दोस्त को ढूंढना शुरू किया। ऐसे लग रहा था जैसे भारी भरकम कुंभ के मेले में मेरा दोस्त कहीं खो गया हैं। व्याकुल क्यों न होऊं आखिर वही तो था जिसके वजह से मैं अंधेरे को हटाने वाला था। कभी किताबों की बंडले हटाता ,तो कभी ए-4 साइज के पेपर तो कभी समाचार पत्रों को हटाता और ढूंढ रहा था कि आखिर मेरा मित्र खो कहां गया है?? सुबह यहीं छोड़के तो गया था। बहुत प्रयास करने के बाद थककर बिस्तर के एक पाया को पकड़कर हाथ पांव फैलाकर उसीपे टिक जाता हूं। और उसी को याद करते हुए फर्श पे ही सो जाता हूं नए नवेले सूरज की चमक जैसे ही मेरे आंखों में अचानक पड़ती हैं जंभाई ल...
तितली रानी से मेरा सवाल ~ मनीष कुमार "असमर्थ"
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Instagram Quotes Facebook page प्रकाशित "तितली रानी सेे मेरा सवाल" तितली रानी तितली रानी, फूल फूल पर जाती क्यों हो? एक फूल ही जन्नत सा था। कुछ रंगों पे गुम जाती क्यों हो? कली-कली पर भौरों के संग, फूलों पर मंडराती क्यों हो? तुम सुन्दर हो, तुम कोमल हो, पर इतना तुम इतराती क्यों हो? कभी फूल का रस पीती हो। कभी दूर उड़ जाती क्यों हो? कभी आंख से ओझल होकर, अपने पंख दिखाती क्यों हो? कभी मिलेंगे,यहीं मिलेंगे। ऐसा आस जगाती क्यों हो? गेरूए रंग का वेश बनाकर, घर परिवार बसाती क्यों हो?? चंचलता इतनी है अच्छा! तो फूलों पे रुक जाती क्यों हो? जब तुम्हे पुकारा करता हूं। तो तुम गूंगी बन जाती क्यों हो? तितली रानी तितली रानी, फूल फूल पर जाती क्यों हो? एक फूल जो सूख रहा है। जाने तुम मुरझाती क्यों हो? ~ मनीष कुमार "असमर्थ" ©®